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Wednesday, October 2, 2013

आज पंद्रह अगस्त है



आज पंद्रह अगस्त है
जो साल भर त्रस्त हैं, आज छुट्टी पाकर मस्त हैं
कमज़ोर होती पुलिस के तगड़े बंदोबस्त हैं
आज पंद्रह अगस्त है

सिद्धांतों की बदहजमी है
नारों के दस्त हैं
कहीं गिरते कहीं गुमसुम झुके
तिरंगे हो रहे पस्त हैं
आज पंद्रह अगस्त है

जवान रगों में जागा
जोश ज़बरदस्त है
शाम के शो के लिए
सुबह से लग रही गश्त है
आज पंद्रह अगस्त है

यादों के मलबे तले
सोच दबी है व्यस्त है
दो लड्डू दो गान का पाठ
हो रहा कंठस्त है
आज पंद्रह अगस्त है

टीवी पे चलती पैरोडी से
परेड की अब शिकस्त है
तिरंगा बटर पनीर बेचती
जनता मौकापरस्त है
आज पंद्रह अगस्त है
आज पंद्रह अगस्त है
आज पंद्रह अगस्त है

मोहब्बत - २.०






बड़ी मशक्कत हुई सी व्यू अपार्टमेंट को लेकर पर आखिर एक जगह मिल ही गयी. कमरे की खिड़की से बिल्डिंग का सी ब्लाक साफ़ दीखता था और उसके पीछे इमारतों का एक समुन्दर. और कहीं दूर कभी कभी प्रदुषण की पकड़ से बच निकला कोई बादल. यूँ तो घर के बादलों के पार ही नज़र दौड़ना मुश्किल था तो शिकायत क्या करना. फिर ब्रोकर ने हमारी ही देहलीज़ पे पीक मारते हुए भरे मुंह से साफ़ साफ़ कहा भी था, ‘इतने पैसे में इतना ही मिलेगा.’ अब इतना भी क्या कम था. बालकनी को अन्दर मिलाके बढाया गया कमरा, कमरे में खिड़की, खिड़की के बाहर नारियल के चार पांच बढ़ते पेड़, पेड़ों के पीछे ब्लाक सी और बस. ‘वैसे रोल करने सुलगाने के लिए जगह इतनी बुरी भी नहीं है. और समुद्री नमी का डर भी नहीं.’, हमने खुद को और आशीष को समझाया. ‘जी हुजुर!’, आशीष ने ठप्पा लगाया. मुझे यही उम्मीद थी. अपनी गर्ल फ्रेंड की जी हुजूरी ने आशीष की आदत जो डाल दी थी.


तो कश लेते, मुकेश हराने को याद कर डरते एक हफ्ता यूँ ही निकल गया. सुहाने मौसम ने खिड़की से लगाव बढ़ा दिया. बादल अन्दर, बारिश बाहर, हरे पेड़ों पे हरे नारियल और पीछे सी ब्लाक. तो चाय भी वहीँ पे और हाय भी वहीँ पे. फ़ोन कॉल वहीँ पे और उलझे खयाल वहीँ पे. हमारी प्रेमिका खिड़की से हमारा प्रसंग अच्छा ही चल रहा था की हमारी प्रेमिका ने उदारता दिखाते हुए हमें अपनी ही सौत से मिला दिया.


सी ब्लाक में सी करने के लिए कुछ कभी न दिखा था. तो हमारी पहली प्रतिक्रिया तो यह थी की जांचे जो दिख रहा है वो कहीं हमारी मानसिक सैर की रचना तो नहीं. पर वो तो फ़ोन कान से लगाए चलती फिरती एक उलझन थी. पल में इधर पल में उधर. झलक पकड़ना तक मुश्किल. और हम कौनसे सबसे सतर्क हालात में थे. ऊपर से आलस के चलते नए चश्मों का ना बनवाना खल रहा था अलग. आँखे मीचे कश खीचे हम गर्दन दायें बायें कर रहे थे कि वो रुक गयी. और दांत भीचे सीधे देखा हमारी ओर. हमने झेंप के हाथ नीचे छुपा लिया और नज़रें यहाँ वहां दौडाने लगे. वो क्या हमारी दादी थी जो डरते पर डर गए. पर खिंचा हुआ धुआं कहाँ रुकने वाला था. यहाँ झट से धुआं छूटा वहां फट से उसकी हंसी फूट पड़ी. उसकी हंसी के धागों से हमारी हिम्मत बंधी. हम नज़र फिराके ठोड़ी ऊपर उठाके फेफड़ों को फिर टार से भरने लगे. कूल थे न हम भी. और वो क्या हमारी दादी थी जो डरते. कनखियों से देखना दिखाना ज़ारी रहा. उसकी उलझन कम होती लग रही थी और हमारी बढ़ रही थी. तभी धडाक से दरवाज़ा खुला और कान पे फ़ोन सटाये अपनी प्रियतमा के प्यार में ‘सॉरीयों’ की कालीन बिछाता आशीष दाखिल हुआ. मैं काटने का इशारा कर ही रहा था की मेरा हाथ खाली कर मेरे हाथ में फ़ोन थमा कर वो घूम गया. यकायक आशीष के चेहरे पे सुख शांति और मेरे चेहरे पे नीरसता छा गयी. और वो, वो सुलझ के वहां से जा चुकी थी. रह गया वहां एक एक्वा गार्ड. हमने घडी की ओर देखा.

पहला कदम था नए चश्मे बनवाना. विचारों की गरमा गर्मी अलग. पर वो सिर्फ छुट्टी पे आई होगी तो? तो क्या चश्मे नहीं बनवाओगे? नज़रें क्या सिर्फ लड़ने के लिए हैं? पढने के लिए नहीं? लगता तो नहीं छुट्टी पे आई है, क्यूँ? खैर फैसला हुआ और नए चश्मे आ गए. अब हर शाम उसी समय पहले काफी देर एक्वा गार्ड से नैन मटक्का होता फिर उनसे नज़रें मिलती. सोचते उस एक्वा गार्ड की जगह काश हम होते, ‘योर फ्रेंड फॉर लाइफ’ बनके. खिड़की पे खड़े होने की वजहों की हमारे पास कोई कमी न थी. जो काम सिनेमा घरों की चेतावनीयां नहीं कर पायी वो इन शामों ने कर दिया. रोज़ फूंकते दिखते तो क्या खाख इज्ज़त बढती. तो कम कर दी छोड़ने के मन से. मटमैली सी दिवार वाले सी ब्लाक में एक उसकी हंसी की ही सफेदी दिखती थी. उसी ने मेरे कालेपन को भी खाना शुरू कर दिया शायद. दाढ़ी बनने लगी. कपडे इस्तरी पे जाने लगे. धुंए की कैद भी टूटने को ही थी. यही होते होते करीब पंद्रह दिन निकल गए.

क्या इतने दिनों में हम सी की सैर पे नहीं जा सकते थे? क्या उसके घर पे दस्तक नहीं दे सकते थे? क्या उसकी मम्मी के आने पर बहाना बना चुप चाप निकल नहीं सकते थे? पर हिम्मत नहीं थी न. और फिर पुरानी फिल्मों वाला धीमी रफ़्तार का प्यार भी बड़ा सुहा रहा था. अभी तक तो हाथ हिलाके ‘हाय’ तक नहीं हुआ था. तभी दिल्ली जाना तय हुआ. जाने का मन तो नहीं था पर नैन लड़ाने से पेट भरता तो दुनिया जन्नत होती. और बम्बई की बारिश से भी थोडा सुकून पाने की लालसा हमें दिल्ली ले आई. सात दिन यही सोचा की अब लौटके बात बढ़ाएंगे.

सिर्फ ‘हाय’ काफी होगा शुरू में? या नीचें टहलें तो मिलना हो? नीचे कौनसा गार्डन है भला? फ़ोन नंबर बड़ा लिख चादर टांग दें? किसी आंटी वांटी ने पढ़ लिया तो? पत्थर में बाँध के संदेस फेंके? तुम कौनसे निशानेबाज हो? दो कांच और तोड़ोगे और फटवाओगे परचा. तो प्लेन कागज़ का? और वो सीधा जाएगा, मूर्ख? इस ख्यालों की घुड़दौड़ पे लगाम खिंची बिल्डिंग के गेट ने. ऑटो वाले को गार्ड से छुट्टे देने के बाद, एक झलक सी आँखों में भर हम अपने आशियाने में आ गए. खिड़की विड़की बंद कर आशीष अपने ब्रेक अप का मकबरा बना वहीँ जमा हुआ था. हमारा समय भी हो गया था. खिड़की खोलने की उत्सुकता में हमने आशीष के झाख्मों पे पानी की पट्टीयां बाँध उसे अन्दर रवाना कर दिया. दौड़ के खिड़की खोली और... नारियल. वो पेड़ जिनके ऊपर कभी उसका चेहरा टिका दिखता था आज उस चेहरे और खिड़की को हड़प कर गए थे. सात दिनों में इतना पानी पी गए की मेरे मंसूबों पे पानी फेर दिया. पत्तियां ऐसी बढ़ी की हमारा पत्ता कट गया. पहले शकल की झलक मुश्किल थी अब तो झलक की झलक पाना तक नामुमकिन था. मेरा बस चलता तो किसी को बुला उन पत्तों को झट से कटवा देता. पर इतने पैसों में इतना ही मिलना था. फिर मोहब्बतें अभी और भी बाकी थीं. मैंने आशीष से पूछा, ‘रोल करेगा?’ उसकी आँखें चमक उठी.

मोहब्बत-१.०






बूंदों की पकड़ से बच अभी अन्दर कदम ही रखा था. श्वाननुमा झटकने ने हमें तो चोंटी भर भी न सुखाया पर पूरी जगह को भिगो दिया. बाहर बारिश की खाई तोह अन्दर एयर कंडीशनर का कुआँ. सरपट काउंटर की ओर दौड़े और बजते हुए दांतों से एक गरम कॉफ़ी का आर्डर दे डाला. जब जान बचने के आसार दिखे तो याद आया की जिन महानुभाव से मिलने हम इस उपभोक्तावाद की लंका में फूटपाथ की लक्ष्मण रेखा पार कर दौड़े चले आये थे उनसे तो मुखातिब होना अभी रह ही गया था. तभी पीछे से आवाज़ आई, “अनुराग! हाय! धीरज.” एक बार को तो हमने सोचा कहीं हमारी हडबडाहट देख धीरज रखने को तो नहीं कह रहे धीरज जी कहीं. हमने एक मंद मुस्कान जुटाने के लिए होठ जोड़े पर कुछ ख़ास निकला नहीं. मन में आया की जल्दी मुस्कान न जुटी तो यह काम भी मुंबई की बारिश में रुके पानी से तेज़ बह जाएगा. और तभी मुस्कराहट ने हमें ढूंढ लिया.


धीरज जी की ओर दो कदम और स्लो मोशन में पीछे की टेबल पे वो प्रकट हुई. बेफिक्र हंसी, बेतरतीब बाल, बेहिसाब सपनो वाली आँखें, बेकरार पलकें और बेशरम हम. “अनुराग! अनुराग!” क्या धीरज साहब, ज़िन्दगी की इतनी ठोकरों में एक ठोकर तो अच्छी लगी थी और आप आ गए उठाने. मीटिंग पे ध्यान देने के मन से हमने धीरज जी के सामने की कुर्सी हथिया तो ली पर सत्ता हम हार चुके थे. कसम ऊपर वाले की किसी मीटिंग में हमने इतनी हाँ कभी न बोली होगी. ज़िन्दगी ऐसे रुकी जैसे चैन के खींचने पे ट्रेन.


तभी पीछे के कांच में बसे खुदपे ध्यान गया. पूछा, ‘क्यूँ लेखक साहब व्यंग, कटाक्ष, दोषदर्शिता छोड़ कहाँ डी.डी.एल.जे लिखने निकल पड़े. थोड़ी तो गैरत ओढ़ लो.’ हमने भी पलट जवाब दे डाला. ‘हाँ हाँ प्यार व्यार थोड़े ही है. दिल फेंकी ही तो है. दिमाग के आड़े कुछ न आने देंगे. तुम चिंता न करो.’ बात बन गयी.

बस फिर क्या था. उन्होंने वहां कप लबों को लगाया यहाँ हमने एक चम्मच शक्कर कम कर दी. वहां धीरज जी हमारी मीटिंग के प्रति उदासीनता भांप रहे थे यहाँ हम प्यार की भांप में सर्दी भगा रहे थे. वहां धीरज जी मोल तोल कर पैसे घटा रहे थे यहाँ हम हाँ हाँ बोल अपनी ही बारात में पैसे उड़ा रहे थे. वहां वो अपने अपनी काले बाल झटकती यहाँ हम बुढापे में एक दूसरे को खिजाब लगाने की कल्पना जोड़ लेते. एक ज़िन्दगी तो हम वहीँ जी गए पूरी. बस यह तय नहीं पाए की देहांत की स्तिथि में क्या किया जाए. वो कुछ जम न पा रहा था. हम पहले जाना नहीं चाहते थे और इतने सालों के बाद उनके बाद कैसे रह पाते. तो हमने साथ साथ दुनिया छोड़ने वाले फिल्मी क्लाइमेक्स पे मोहर लगा दी.

“डन डन” बोल धीरज जी ने कब हमसे हाथ मिलाया कब रुखसत हुए पता न चला. हम अगली टेबल पे जाने का मन बना ही रहे थे की बैरा हमसे पहले मन बना हमारी टेबल पे आ गया. डरे डरे जब उसने हमें कन्धों से झंझोड़ा तो नज़रें मिसेस से हटानी पड़ी. धीरज जी मौके का फायदा उठा बिल हमारे चौड़े होते माथे मढ़ गए थे. चारों जेबें टटोलनी पड़ी. शरीर से जब अस्सी रुपये वज़न कम कर हमने नज़रें दोबारा उठायीं तो वो जा चुकी थी. कहाँ कैसे हमें नहीं पता. हमने आगे पीछे देखा जैसे हम किसी पिद्दी सी कॉफ़ी शॉप में नहीं बल्कि किसी मेले में हों. जो होती तो दिखती. बाहर बारिश के परदे के पीछे चली गयी थी शायद. अब पीछा कर मारे मारे भी क्या फिरना. एक पूरी ज़िन्दगी तो हम जी ही चुके थे. फिर मोहब्बतें अभी और भी बाकी थीं. हमने धीरज जी को कॉल लगाया.

Rainbow







i met you on a rainbowi picked red you picked yellow
and we walked those tracks side by side
hoping they join when the end arrives
but the end held no pot of gold
the tracks vanished in thin air
that's not what i was told
me, i don't complain
an arid soul blessed with rain
and then you and the colors and looking forward to tomorrow
and those chats across orange and more to follow
you are free to pick violet or hop off and go
me, i am gonna stay here, on the rainbow

Tere Jaane Ke Baad



tere jaane ke baad
khaali kamre ko dekhte hein
teri nishani koi khojte hein
ek hair clip hi mili bas bohot tarsaane ke baad
tere jaane ke baad
aaine se rubaru hona kaafi der tak taalte hein
jo ho jaayein toh khud ko kai gaaliyan de daalte hein
rooth te hein kai baar khud ko manaane ke baad
tere jaane ke baad
sau dafa phone utha tere message ki raah takte hein
aadhi baji ghanti pe bhi poora jhapat-te hein
phir puraana koi message padh rakh dete hein phone muskuraane ke baad
tere jaane ke baad
laal aankhon pe chashma daalna tak yaad na rehta hai
uljhaane ko ungliyan ab kuch saath na rehta hai
suljhi hein ungliyan mann uljhaane ke baad
tere jaane ke baad
tere shampoo lipstick ki khushbuein jo hawa ho gayi hein
meri toh naak hi mujhse khafa ho gayi hai
ab khilegi phir voh zamaane ke baad
tere jaane ke baad
meri khurdhuri daadhi ki shikaayat ab kaun karega
mere kharchon mein kifayat ab kaun karega
ab kaun baat jaane dega mere jhoothe bahaane ke baad
tere jaane ke baad
ab ki baar tumhaari pasand ka filmy pyaar karenge
ab ki baar hum aankhon mein sadiyan paar karenge
aur phir main chal dunga saath sadiyan bitaane ke baad
tere jaane ke baad
tere jaane ke...

सिलवटें






माथो की हाथों की
रातों की जज़्बातों की
सिलवटें

कुछ बिस्तर की चादर पे
कुछ सामाजिक आदर पे
सिलवटें

आती हैं तेरे आने पे
सिर्फ़ मेरे सिरहाने पे
सिलवटें

कभी काँपते होठों पे उभरती
कभी खुलती पलकों में सिमटती
सिलवटें

कल के ख्वाब में
छलके आब में
सिलवटें

जगह जगह टूटी सी
सहलाने पे रूठी सी
सिलवटें

बेछोर कहीं कहीं नपी हुई
तन की मन में छपी हुई
सिलवटें

तेरे सपाट तलवों को चिढ़ाती
मुझसे तुझमें समाती
सिलवटें

सुबह की दुश्मन मेरी
शामों की उलझन मेरी
सिलवटें

सब कुछ सौंपा मुझे
तेरा वो तोहफा मुझे
सिलवटें

तेरी याद दिलाती वो
फर्श पे मुझे सुलाती वो
सिलवटें

कब तक ये दिल कटे
कब तक साहिल बटे
तरतीबी ये फिर हटे
फिर लौट आयें वो सिलवटें
फिर लौट आयें वो
सिलवटें

कलम मेरी कलम



कभी तो मेरी सोच से भी तेज़ भाग निकलती थी
आज मेरे मंसूबों से कहीं पिछड़ी सी है
जैसे झोले से यकायक ही जाग निकलती थी
आज तो उंगलियों से ही बिछड़ी सी है
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम


कोई आवारा सा ख्याल कभी जो मिल जाता
तो उसे दबोचने तू झट से आ जाती
पर जब काम के लिए नाम देने का वक़्त आता
तो मेरी इज़्ज़त को तू खूब देर नाचती
तेरे खिलवाडों पे मुस्कुरा के सह जाते जाने कितने सितम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम

मैने तुझे चूमा चबाया दिल के पास रखा
किस्मत का ठेका भी आधा आधा बाटा
कहते हैं लोग की तुझे प्रेमिका से भी ख़ास रखा
ना रखता तो कोई प्रसंग शायद कभी रंग खिलाता
अब आज वो नही और तू भी नही और ना होंगे कल हम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम

तुझपे जान छिड़कता मैं तो तू भी मुझपे मरती थी
अब ना जाए क्यूँ तू बस रूठी रूठी सी रहती है
कितने वाकिये तो तू खुद ही लिख दिया करती थी
अब काग़ज़ पे थम कर स्याही का एक कुआँ सा बना देती है
फिर आके लिख जा चार शब्द की मिट जायें मेरे भरम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम


कलम मेरी कलम...

शायद कल



शायद कल नंगे पाँव के नीचे दूब कसमसाए, थोडा गुदगुदाए
शायद कल नहाते वक़्त नाक में पानी, आँखों में साबुन चला जाए

शायद कल गली में घूमते किसी आवारा पिल्ले को नाम मैं दे दूँ
शायद कल किसी और की बात को विराम मैं दे दूँ

शायद कल किराने से बचे छुट्टे पैसों का खजाना ही मिल जाए
शायद कल होमवर्क की छुट्टी का बहाना ही मिल जाए

शायद कल मैं शहर में नई कोई गली ही खोज लूँ
शायद कल मैं फिर खुद को सुपरमैन या ही-मैन ही सोच लूँ

शायद कल फिर किसी छोटी चोट पे बेंड-ऐड लगाईं जाए
शायद कल फिर पापा से नयी कोई टोफी मंगाई जाए

शायद कल फिर दोस्तों के साथ मनघडंत कोई कहानी बन जाए
शायद कल फिर देश प्रेम में सीना तन जाए

शायद कल फिर भाई की साइकिल से गली की रेस हो जाए
शायद कल फिर मम्मी के पल्लू में बहते आंसू खो जाएँ

शायद कल कॉपी में एक गुड कोई दे दे
शायद कल क्रीम वाला बिस्कुट कोई दे दे

शायद कल फिर परिवार पूरा चित्रहार देखने बैठे
शायद कल फिर पापा सर सहलाएं लेटे लेटे

शायद कल बीता हर वोह पल ही आ जाए
शायद वोह कल कल ही आ जाए

शायद...

Chamdi



chamda chamdi
daam mein damdi
jism ki bikri
waah befikri

apne bulbuley
soney mein tuley
dil mein neem ugey
munh mein mishri

bachpan pachpan
jee ki tadpan
sabka mol hai
paisa gol hai

ghumta firta
har jaib mein girta
imaan mein halka
bhaari tol hai

kisi maa ki behen ki
haalat kyun sahan ki
kya yahi padha tu
hua yunhi bada tu?

dimaag bhara hai
na dil hara hai
soch zara yeh
kahan khada tu

zindagiyon pe jeete
daanavon se peete
khoon khoob hein
yeh jo mehboob hein

bulbulon ko fodo
ab udna chodo
zameen chodke
sab ore doob hai

har jaan bikey jo
anjaan dikhe jo
na farak tumhe ho
ho baat yeh bisri

chamda chamdi
daam mein damdi
jism ki bikri
waah befikri

Chaar Shabd



jo chaar shabd main har pyaar ke naam likhta
toh shabdon mein piroyi anginat subah aur shaam likhta
naam ke naam pe mera hai hi kya abhi
varna tu galib ke baad mera hi naam likhta

pyaar mein dil yeh girta hi raha
main khumaari mein khushnumaai mein firta hi raha
yeh nasha likha upar waale ne mere haq mein
na likhta toh jaane kitne jaam likhta
jo chaar shabd....
kai bhulaane laayak vakiye the, bhula bhi gaye
kuch yaad mein reh gaye rula bhi gaye
kuch jagaaye rakhe kuch sula bhi gaye mujhe
raaton ka varna kya mukaam likhta
jo char shabd....
main pyaar mein padna chahta tha, pyaar mujh mein pad gaya
sudhaarte sudhaarte dilon ko yeh dil bigad gaya
koi sudhaarne ka dum toh bharta ek baar isey
naam uske main zaaydaad tamam likhta
jo chaar shabd...

silsila silsilon ka ab bhi zaari hai
dhai akshar mein teen duniya saari hein
bimaari ko bimaar ya bimaar ko bimaari hai kaun kahe
jaan pata toh hakeem koi toh aaraam likhta
jo char shabd...

छीटें भाग २-






पिछले पाँच मिनिट से पेन से हाथ चितरता बैठा हूँ मैं. सोचता हूँ की क्या लिखूं. पर सच कहूँ तो कुछ ज़हेन में ही नहीं आ रहा. ज़िंदगी के बारे में लिख-लिख के भी ऊब गया हूँ. प्यार? प्यार के बारे में लिखूं? होता ही नहीं है साला तो लिखूं क्या. कई बार लगता है शायद इसी वजह से ज़िंदगी में वो ख़ालीपन रह जाता है जो कैसे भी भर नहीं पा रहा है. कोई चाहिए शायद. यह मैने बात शुरू कर दी मेरे सांसारिक रूप की तरह. और व्यंगात्मक बात यह है की जब भी कुछ चाहने की बात करता हूँ, मेरे मन में ज़िंदगी को समझने, इसके अर्थ को समझने के विचार कौंध जाते हैं. शायद इसलिए क्योंकि मुझे लगता है की एक बार ज़िंदगी और अर्थ को समझ लिया तो चाहतों से सदा के लिए छुटकारा मिल जाएगा. सोचने में शॉर्टकट लगता है, पर शॉर्टकट तो तब जब कोई राह तो सूझे.


क्या है मेरे पास रात को वापस आने के लिए? लॅपटॉप, कुछ फिल्में, अकेलापन. कभी-कभी लगता है जैब में पैसे होते तो दुनियाभर में यारी-दोस्ती निभाता फिरता. कहाँ उठे, कहाँ लुड़के, किसे खबर. पर लगता है ज़िंदगी ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा है. बस बताती नहीं है क्या.


खैर फिलहाल तो कुछ लक्ष्य रूपी चूसनी देकर चुप करा रखा है इसने मुझे. देखें एक बार इसका रस ख़त्म हो जाए तो फिर क्या होता है.


शुभ्रात्रि ज़िंदगी.

Saturday, March 24, 2012

रात

रात के बिछौने पे

कलह सिमट के सोई है

सन्नाटे की चादर में

ताज़ा एक पुकार सिसक के खोई है

और हाथ पकड़ कर रात ये

नये शैतानो को खीच बाहर लाई है

की कई बार चाँद को ढककर

इस रात ने राहें छुपाई हैं

ये रात तो है मायावी सी

ये आशिक़ों की भी है, रसीकों की भी

है ये चैन से सोने वालों की

और कुछ मेरे सरीकों की भी

इस रात में सेजें तपती भी हैं

शमशान की राख ठंडाती भी

है सपने बुनती रात यही

मुई सपनो से जगाती भी

और दिन से जुड़ी है दूर बहुत पर

जो सबकी है वो रात नहीं

सफेद जो दिन होता है सबका

काली हमबिस्तर सबके साथ नहीं

पर ये रात जो काली ना होती

तो रात ये साली ना होती

जो हाथ रात का कट जाता

तो दिन की ताली ना होती

तो रात ये फिर घिर आई है

जाने क्या रंग छुपाएगी

इन्सा को फिर झंझोड़ेगी

फिर कुत्तों को सहलाएगी

हूँ दास मैं तेरा हे रात हे रात

चलूँगा जहाँ ले जाएगी

एक अंधेरे पे तेरे ही तो भरोसा है

जिसमें कभी मेरी सोच भी खो जाएगी.

छीटें

एक पुरानी कॉपी हाथ लगी. मानो ख़ज़ाना ही हाथ लग गया हो. कुछ ऐसे पलों का ख़ज़ाना जो मुझे याद नहीं की मैने जिए हैं. तारीखों से मालूम हुआ की उसमें जो कुछ लिखा है वो सब मैने कॉलेज के अंत के कुछ दिनों अथवा उसके बाद के दिनों में लिखा था. पर सच कहूँ तो मुझे उसमें से कुछ भी लिखना याद नहीं. अच्छा लगा एक तीसरे आदमी के दृष्टिकोण से खुद को देखकर. खुद को यूँ समझने का अनुभव भी अद्भुत सा रहा. बस उसी जादूई कॉपी से जो कुछ मेरे हाथ लगा, उस गागर में से चुल्लू भर पानी के छीटें यहाँ मार रहा हूँ, यह स्पष्ट करते हुए की हालाँकि मुझे याद नहीं की मैने जो लिखा था वो क्यों अथवा कब लिखा था पर वह भी मैं था और आज उसे पढ़ अचरज करता यह भी मैं हूँ.


छीटें भाग १-

एक दूसरे का पीछा करते घड़ी के कांटें मुझे बीते कल से दूर ढकेले जा रहे हैं. आने वाले कल से ज़रा झिझकते हुए मुझे अपने जाने-पहचाने, मित्र रूपी भूत को अलविदा कहने का मौका भी नहीं मिल पाता. मैं हाथ बढ़ाया रह जाता हूँ उसकी ओर पर वो जाता ही दिखाई देता है. भविष्य अजनबी, वर्तमान परिचित मात्र और भूत ही मित्र या पहचाना होता है. एक ऐसा मित्र जिससे सीख तो सकते हैं पर उसके साथ समय व्यतीत नही कर सकते. करें भी तो कैसे, वो तो खुद ही बीता समय है.


खैर परिचित से अपरिचित की ओर बढ़ता मैं कल की सोच में इतना मग्न रहता हूँ की आज से बेख़बर हो जाता हूँ. कभी कभी तो लगता है आज कुछ होता ही नहीं. देख जो ना पाया हूँ इतने समय से.


मानव मूल को समझना चाहता हूँ मैं. शायद वहीं से मेरे सभी सवालों के जवाब मुझे मिलें. और दुनिया में कितना कुछ है देखने को. ऐसे ख़याल भी क्यों आते हैं भला मन में मेरे. है देखने को तो क्या? क्या मिलेगा उससे? क्या बदलेगा? क्यों इच्छायें, उत्सुकता, महत्वकाँषायें इत्यादि मन में घर बना लेती हैं? ऐसे में सोचता हूँ मानसिक तौर पे विक्षिप्त इंसान क्या सोचता होगा? क्या भूत भविष्य वो भी खोजता होगा?


एक बात यह भी है की मैने दुनिया को इंसानो की नज़रों से ही देखा है. दुनिया को दुनिया के तौर पे तो शायद देखा ही नहीं. हर एक चीज़ में एक मानवीय कोण आ ही जाता है. शायद यह मानव होने का ही एक हिस्सा है.


सोचता हूँ मैं कहाँ इन सब चीज़ों की फ़िक्र करता रहता हूँ और कहाँ दुनिया में लोगों को पर्यावरण, पैसे, घर, परिवार, बीमारियों इत्यादि की चिंताएं सताए रहती हैं. पर में सोचने के बारे में ज़्यादा सोचता नहीं. ज़िंदगी जैसी आती है वैसी ही जीता हूँ. मन में आया लिखना है तो लिख रहा हूँ, मन हटा तो कलम रख सोने चला जाऊँगा.


वैसे जहाँ तक आज, यानी की २२/०४/०९ की बात है, मैं अनुराग भोमिया, उमर २१ वर्ष २ महीनें, ज़िंदगी को लेकर, मेरे भविष्य को लेकर बिल्कुल अनिश्चित हूँ, दुनिया और इसके लोगों से बहुत चिढ़ा हुआ हूँ, भविष्य में सौफ़ीसदी खून करने वाला हूँ, मन की शांति चाहता हूँ और दुनिया घूमने का मन रखता हूँ, एक ही बार प्यार में पड़ा हूँ, आज भी घर को हर चीज़ से उपर रखता हूँ, माँस-मदिरा का सेवन करता हूँ, दिल से अच्छा हूँ और सबका भला चाहता हूँ और यह अच्छी तरह जानता हूँ की भविष्य में चाहे जैसे भी हो, बहुत बड़ा आदमी बनने वाला हूँ.


सोने का समय हो गया लगता है. कलम छोड़ रहा हूँ अभी के लिए, पर जल्द ही फिर उठाऊँगा.


_________________

भाग १ समाप्त.


मैं आज़ाद हूँ.

ना धर्मों के प्रपंचों में हूँ

ना कट्टर फसल की खाद हूँ

चूहों की दौड़ मे ना-शामिल हूँ

ना पहले हूँ ना बाद हूँ

ना गालियों से कुंठाता हूँ

ना मोहताज-ए-दाद हूँ

ना किसान का ब्याज हूँ

ना ही उपभोक्तावाद हूँ

अपवाद होने की चाह से दूर

खुद एक अपवाद हूँ

जो तुलनात्मक हो वो आज़ादी क्या

ना तुलनाओ में बर्बाद हूँ

मैं, मैं आज़ाद हूँ.


Bachche banein



Kuch der chavi se haath chudaayein,

Kuch der toh bande sachche banein,

Kuch der fikar ko samjhein hi na,

Kuch der akal ke kachche banein,

Chalo kisi ko jeebh chidhaayein,

Kyun sabke saamne achche banein,

Jo bade baney kya bada ukhada,

Kuch der ko phirse bachche banein