बड़ी मशक्कत हुई सी व्यू अपार्टमेंट को लेकर पर आखिर एक जगह मिल ही गयी. कमरे की खिड़की से बिल्डिंग का सी ब्लाक साफ़ दीखता था और उसके पीछे इमारतों का एक समुन्दर. और कहीं दूर कभी कभी प्रदुषण की पकड़ से बच निकला कोई बादल. यूँ तो घर के बादलों के पार ही नज़र दौड़ना मुश्किल था तो शिकायत क्या करना. फिर ब्रोकर ने हमारी ही देहलीज़ पे पीक मारते हुए भरे मुंह से साफ़ साफ़ कहा भी था, ‘इतने पैसे में इतना ही मिलेगा.’ अब इतना भी क्या कम था. बालकनी को अन्दर मिलाके बढाया गया कमरा, कमरे में खिड़की, खिड़की के बाहर नारियल के चार पांच बढ़ते पेड़, पेड़ों के पीछे ब्लाक सी और बस. ‘वैसे रोल करने सुलगाने के लिए जगह इतनी बुरी भी नहीं है. और समुद्री नमी का डर भी नहीं.’, हमने खुद को और आशीष को समझाया. ‘जी हुजुर!’, आशीष ने ठप्पा लगाया. मुझे यही उम्मीद थी. अपनी गर्ल फ्रेंड की जी हुजूरी ने आशीष की आदत जो डाल दी थी.
तो कश लेते, मुकेश हराने को याद कर डरते एक हफ्ता यूँ ही निकल गया. सुहाने मौसम ने खिड़की से लगाव बढ़ा दिया. बादल अन्दर, बारिश बाहर, हरे पेड़ों पे हरे नारियल और पीछे सी ब्लाक. तो चाय भी वहीँ पे और हाय भी वहीँ पे. फ़ोन कॉल वहीँ पे और उलझे खयाल वहीँ पे. हमारी प्रेमिका खिड़की से हमारा प्रसंग अच्छा ही चल रहा था की हमारी प्रेमिका ने उदारता दिखाते हुए हमें अपनी ही सौत से मिला दिया.
सी ब्लाक में सी करने के लिए कुछ कभी न दिखा था. तो हमारी पहली प्रतिक्रिया तो यह थी की जांचे जो दिख रहा है वो कहीं हमारी मानसिक सैर की रचना तो नहीं. पर वो तो फ़ोन कान से लगाए चलती फिरती एक उलझन थी. पल में इधर पल में उधर. झलक पकड़ना तक मुश्किल. और हम कौनसे सबसे सतर्क हालात में थे. ऊपर से आलस के चलते नए चश्मों का ना बनवाना खल रहा था अलग. आँखे मीचे कश खीचे हम गर्दन दायें बायें कर रहे थे कि वो रुक गयी. और दांत भीचे सीधे देखा हमारी ओर. हमने झेंप के हाथ नीचे छुपा लिया और नज़रें यहाँ वहां दौडाने लगे. वो क्या हमारी दादी थी जो डरते पर डर गए. पर खिंचा हुआ धुआं कहाँ रुकने वाला था. यहाँ झट से धुआं छूटा वहां फट से उसकी हंसी फूट पड़ी. उसकी हंसी के धागों से हमारी हिम्मत बंधी. हम नज़र फिराके ठोड़ी ऊपर उठाके फेफड़ों को फिर टार से भरने लगे. कूल थे न हम भी. और वो क्या हमारी दादी थी जो डरते. कनखियों से देखना दिखाना ज़ारी रहा. उसकी उलझन कम होती लग रही थी और हमारी बढ़ रही थी. तभी धडाक से दरवाज़ा खुला और कान पे फ़ोन सटाये अपनी प्रियतमा के प्यार में ‘सॉरीयों’ की कालीन बिछाता आशीष दाखिल हुआ. मैं काटने का इशारा कर ही रहा था की मेरा हाथ खाली कर मेरे हाथ में फ़ोन थमा कर वो घूम गया. यकायक आशीष के चेहरे पे सुख शांति और मेरे चेहरे पे नीरसता छा गयी. और वो, वो सुलझ के वहां से जा चुकी थी. रह गया वहां एक एक्वा गार्ड. हमने घडी की ओर देखा.
पहला कदम था नए चश्मे बनवाना. विचारों की गरमा गर्मी अलग. पर वो सिर्फ छुट्टी पे आई होगी तो? तो क्या चश्मे नहीं बनवाओगे? नज़रें क्या सिर्फ लड़ने के लिए हैं? पढने के लिए नहीं? लगता तो नहीं छुट्टी पे आई है, क्यूँ? खैर फैसला हुआ और नए चश्मे आ गए. अब हर शाम उसी समय पहले काफी देर एक्वा गार्ड से नैन मटक्का होता फिर उनसे नज़रें मिलती. सोचते उस एक्वा गार्ड की जगह काश हम होते, ‘योर फ्रेंड फॉर लाइफ’ बनके. खिड़की पे खड़े होने की वजहों की हमारे पास कोई कमी न थी. जो काम सिनेमा घरों की चेतावनीयां नहीं कर पायी वो इन शामों ने कर दिया. रोज़ फूंकते दिखते तो क्या खाख इज्ज़त बढती. तो कम कर दी छोड़ने के मन से. मटमैली सी दिवार वाले सी ब्लाक में एक उसकी हंसी की ही सफेदी दिखती थी. उसी ने मेरे कालेपन को भी खाना शुरू कर दिया शायद. दाढ़ी बनने लगी. कपडे इस्तरी पे जाने लगे. धुंए की कैद भी टूटने को ही थी. यही होते होते करीब पंद्रह दिन निकल गए.
क्या इतने दिनों में हम सी की सैर पे नहीं जा सकते थे? क्या उसके घर पे दस्तक नहीं दे सकते थे? क्या उसकी मम्मी के आने पर बहाना बना चुप चाप निकल नहीं सकते थे? पर हिम्मत नहीं थी न. और फिर पुरानी फिल्मों वाला धीमी रफ़्तार का प्यार भी बड़ा सुहा रहा था. अभी तक तो हाथ हिलाके ‘हाय’ तक नहीं हुआ था. तभी दिल्ली जाना तय हुआ. जाने का मन तो नहीं था पर नैन लड़ाने से पेट भरता तो दुनिया जन्नत होती. और बम्बई की बारिश से भी थोडा सुकून पाने की लालसा हमें दिल्ली ले आई. सात दिन यही सोचा की अब लौटके बात बढ़ाएंगे.
सिर्फ ‘हाय’ काफी होगा शुरू में? या नीचें टहलें तो मिलना हो? नीचे कौनसा गार्डन है भला? फ़ोन नंबर बड़ा लिख चादर टांग दें? किसी आंटी वांटी ने पढ़ लिया तो? पत्थर में बाँध के संदेस फेंके? तुम कौनसे निशानेबाज हो? दो कांच और तोड़ोगे और फटवाओगे परचा. तो प्लेन कागज़ का? और वो सीधा जाएगा, मूर्ख? इस ख्यालों की घुड़दौड़ पे लगाम खिंची बिल्डिंग के गेट ने. ऑटो वाले को गार्ड से छुट्टे देने के बाद, एक झलक सी आँखों में भर हम अपने आशियाने में आ गए. खिड़की विड़की बंद कर आशीष अपने ब्रेक अप का मकबरा बना वहीँ जमा हुआ था. हमारा समय भी हो गया था. खिड़की खोलने की उत्सुकता में हमने आशीष के झाख्मों पे पानी की पट्टीयां बाँध उसे अन्दर रवाना कर दिया. दौड़ के खिड़की खोली और... नारियल. वो पेड़ जिनके ऊपर कभी उसका चेहरा टिका दिखता था आज उस चेहरे और खिड़की को हड़प कर गए थे. सात दिनों में इतना पानी पी गए की मेरे मंसूबों पे पानी फेर दिया. पत्तियां ऐसी बढ़ी की हमारा पत्ता कट गया. पहले शकल की झलक मुश्किल थी अब तो झलक की झलक पाना तक नामुमकिन था. मेरा बस चलता तो किसी को बुला उन पत्तों को झट से कटवा देता. पर इतने पैसों में इतना ही मिलना था. फिर मोहब्बतें अभी और भी बाकी थीं. मैंने आशीष से पूछा, ‘रोल करेगा?’ उसकी आँखें चमक उठी.
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