पिछले पाँच मिनिट से पेन से हाथ चितरता बैठा हूँ मैं. सोचता हूँ की क्या लिखूं. पर सच कहूँ तो कुछ ज़हेन में ही नहीं आ रहा. ज़िंदगी के बारे में लिख-लिख के भी ऊब गया हूँ. प्यार? प्यार के बारे में लिखूं? होता ही नहीं है साला तो लिखूं क्या. कई बार लगता है शायद इसी वजह से ज़िंदगी में वो ख़ालीपन रह जाता है जो कैसे भी भर नहीं पा रहा है. कोई चाहिए शायद. यह मैने बात शुरू कर दी मेरे सांसारिक रूप की तरह. और व्यंगात्मक बात यह है की जब भी कुछ चाहने की बात करता हूँ, मेरे मन में ज़िंदगी को समझने, इसके अर्थ को समझने के विचार कौंध जाते हैं. शायद इसलिए क्योंकि मुझे लगता है की एक बार ज़िंदगी और अर्थ को समझ लिया तो चाहतों से सदा के लिए छुटकारा मिल जाएगा. सोचने में शॉर्टकट लगता है, पर शॉर्टकट तो तब जब कोई राह तो सूझे.
क्या है मेरे पास रात को वापस आने के लिए? लॅपटॉप, कुछ फिल्में, अकेलापन. कभी-कभी लगता है जैब में पैसे होते तो दुनियाभर में यारी-दोस्ती निभाता फिरता. कहाँ उठे, कहाँ लुड़के, किसे खबर. पर लगता है ज़िंदगी ने मेरे लिए कुछ और ही सोच रखा है. बस बताती नहीं है क्या.
खैर फिलहाल तो कुछ लक्ष्य रूपी चूसनी देकर चुप करा रखा है इसने मुझे. देखें एक बार इसका रस ख़त्म हो जाए तो फिर क्या होता है.
शुभ्रात्रि ज़िंदगी.
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