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Wednesday, October 2, 2013

कलम मेरी कलम



कभी तो मेरी सोच से भी तेज़ भाग निकलती थी
आज मेरे मंसूबों से कहीं पिछड़ी सी है
जैसे झोले से यकायक ही जाग निकलती थी
आज तो उंगलियों से ही बिछड़ी सी है
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम


कोई आवारा सा ख्याल कभी जो मिल जाता
तो उसे दबोचने तू झट से आ जाती
पर जब काम के लिए नाम देने का वक़्त आता
तो मेरी इज़्ज़त को तू खूब देर नाचती
तेरे खिलवाडों पे मुस्कुरा के सह जाते जाने कितने सितम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम

मैने तुझे चूमा चबाया दिल के पास रखा
किस्मत का ठेका भी आधा आधा बाटा
कहते हैं लोग की तुझे प्रेमिका से भी ख़ास रखा
ना रखता तो कोई प्रसंग शायद कभी रंग खिलाता
अब आज वो नही और तू भी नही और ना होंगे कल हम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम

तुझपे जान छिड़कता मैं तो तू भी मुझपे मरती थी
अब ना जाए क्यूँ तू बस रूठी रूठी सी रहती है
कितने वाकिये तो तू खुद ही लिख दिया करती थी
अब काग़ज़ पे थम कर स्याही का एक कुआँ सा बना देती है
फिर आके लिख जा चार शब्द की मिट जायें मेरे भरम
कलम मेरी कलम
तुझसे यादों को लिखते थे
आज यादों में तुझे लिख रहे हम


कलम मेरी कलम...

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