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Tuesday, October 12, 2010

दिल विराना



मैं अकेला दिल विराना

और हरामी सारा ज़माना

और टूटे भी अब दिल कितना

टुकड़ों का अब क्या चूरन बनाना


ये गया वो गया

चला गया हर कोई

निर्दोष यह आँखें मेरी

न रोई न सोयी


दोष किसका न समझा में अब तक

तोह खोट खुद में ही ढूंढता फिरा

कुछ तो बात होगी जो में

हर पगडण्डी पे चलता गिरा


क्या तू सही है

क्या मैं सही हूँ

क्या सब वाही है

क्या मैं वाही हूँ


खैर तू जो गया है

तो मैं खुद को देख पाया हूँ

तो में दुनिया से

व्योम में अब आया हूँ


दिल अब आराम से ज़रा

इस दुनिया में चलना-चलाना

मैं अकेला दिल विराना

और हरामी सारा ज़माना

मैंने राम को नहीं देखा

मैंने राम को नहीं देखा
नहीं देखा मैंने उसके काम को
मैंने देखा है तो बस
उसके नाम पे होते हराम को

देखा है मैंने लोगों को घृणा में जलते हुए
देखा है उन्‍हें अज्ञान की कोख में पलते हुए
मैंने प्‍यार के अंजाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा

क्‍या राम चाहेगा किसी की इमारत गिरे
क्‍या राम चाहेगा कि धर्म के नाम दिल चिरें
मैंने ऐसे इंतजाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा

क्‍या राम का रावण से धर्म का युद्ध था?
क्‍या राम का मन हिंदुत्‍व से अशुद्ध था?
मैंने रामायण में भी ऐसे कत्‍लेआम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा

राम कब पैदा, कहां हुआ, किसे पता
पर इसी बात पर फोकटियों का झट्ठा बटा
ऐसी यात्राओं के मैंने मुकाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा

देश को खून की कड़ाही में तलते हैं
जो अपने भगवानों के नारे दिये चलते हैं
मैंने ऐसे तकिया-कलाम को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा भाई
मैंने राम को नहीं देखा

मैंने देखा लोगों का खून बहते
मांओं को बच्‍चों के मरने का गम सहते
राजनेताओं की जेबें भरते
एक आम हिंदू-मुसलमान को अपने घर में डरते
क्‍यूं न लड़ूं मैं इनके लिए जो मेरे सामने सांस लेते हैं
क्‍यों मैं जपूं राम नाम जिसकी लोग मन में आस लेते हैं
जो रोक न सका इतने बेगुनाह लोगों को तड़पने से
मैंने उस भगवान को नहीं देखा
मैंने राम को नहीं देखा।

झरोखे



जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं


झरोखों की भी अपनी बात निराली है

जैसे निर्दयी दीवारों में थोड़ी उम्मीद की जगह खाली है


किसी में चचा जान तो किसी में छोटू खड़ा है

कि जैसे झरोखे रूपी मुख से, घर दुनिया से बोल पड़ा है


झरोखों से झरोखे भर ज़िंदगियाँ देखना मुझे खूब लुभाता है

मन हर झरोखे के पीछे बनती कहानियों का अंदाज़ा लगाता है


कहीं से छलकती हरी दीवारें कहीं गुलाबी पर्दे क्या कुछ कहते हैं

कुछ के नीचे लेनदार तो कुछ के नीचे आशिक़ रहते हैं


कहीं से कलह का शोर, तो कहीं से मंद संगीत छनकर आता है

गुज़रता राहगीर अंजाने ही दिन भर वो धुन गुनगुनता है


झरोखों में झलकती जीवन की विविधता सुहानी है

मानो इस पोस्टर के बिना बाकी फिल्म ही बेमानी है


फिर आँखों के झरोखों से मॅन को ताकना

मॅन के झरोखे से जीवन को ताकना


और बैठ झरोखों पे आने वालों की बाट जोहना

अंदर-बाहर के गम-खुशी में खो,

कभी खिलखिलाना कभी बिलख के रोना


रोज़मर्रा के बायोस्कोपे यह अनोखे हैं

अनंत बढ़ती दीवारों को यही तो रोके हैं

अनायास ही मेरे जिग्यासु मन को क्यूँ यह टोके हैं

जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

इत्र-तड़कों के शीतल झोके हैं

अब बंद दरवाज़ों के पीछे पलते समाज के

प्रतिबिंब के यही तो चन्द मौके हैं


जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं