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Tuesday, October 12, 2010

झरोखे



जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं


झरोखों की भी अपनी बात निराली है

जैसे निर्दयी दीवारों में थोड़ी उम्मीद की जगह खाली है


किसी में चचा जान तो किसी में छोटू खड़ा है

कि जैसे झरोखे रूपी मुख से, घर दुनिया से बोल पड़ा है


झरोखों से झरोखे भर ज़िंदगियाँ देखना मुझे खूब लुभाता है

मन हर झरोखे के पीछे बनती कहानियों का अंदाज़ा लगाता है


कहीं से छलकती हरी दीवारें कहीं गुलाबी पर्दे क्या कुछ कहते हैं

कुछ के नीचे लेनदार तो कुछ के नीचे आशिक़ रहते हैं


कहीं से कलह का शोर, तो कहीं से मंद संगीत छनकर आता है

गुज़रता राहगीर अंजाने ही दिन भर वो धुन गुनगुनता है


झरोखों में झलकती जीवन की विविधता सुहानी है

मानो इस पोस्टर के बिना बाकी फिल्म ही बेमानी है


फिर आँखों के झरोखों से मॅन को ताकना

मॅन के झरोखे से जीवन को ताकना


और बैठ झरोखों पे आने वालों की बाट जोहना

अंदर-बाहर के गम-खुशी में खो,

कभी खिलखिलाना कभी बिलख के रोना


रोज़मर्रा के बायोस्कोपे यह अनोखे हैं

अनंत बढ़ती दीवारों को यही तो रोके हैं

अनायास ही मेरे जिग्यासु मन को क्यूँ यह टोके हैं

जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

इत्र-तड़कों के शीतल झोके हैं

अब बंद दरवाज़ों के पीछे पलते समाज के

प्रतिबिंब के यही तो चन्द मौके हैं


जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं

कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं


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