जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं
कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं
झरोखों की भी अपनी बात निराली है
जैसे निर्दयी दीवारों में थोड़ी उम्मीद की जगह खाली है
किसी में चचा जान तो किसी में छोटू खड़ा है
कि जैसे झरोखे रूपी मुख से, घर दुनिया से बोल पड़ा है
झरोखों से झरोखे भर ज़िंदगियाँ देखना मुझे खूब लुभाता है
मन हर झरोखे के पीछे बनती कहानियों का अंदाज़ा लगाता है
कहीं से छलकती हरी दीवारें कहीं गुलाबी पर्दे क्या कुछ कहते हैं
कुछ के नीचे लेनदार तो कुछ के नीचे आशिक़ रहते हैं
कहीं से कलह का शोर, तो कहीं से मंद संगीत छनकर आता है
गुज़रता राहगीर अंजाने ही दिन भर वो धुन गुनगुनता है
झरोखों में झलकती जीवन की विविधता सुहानी है
मानो इस पोस्टर के बिना बाकी फिल्म ही बेमानी है
फिर आँखों के झरोखों से मॅन को ताकना
मॅन के झरोखे से जीवन को ताकना
और बैठ झरोखों पे आने वालों की बाट जोहना
अंदर-बाहर के गम-खुशी में खो,
कभी खिलखिलाना कभी बिलख के रोना
रोज़मर्रा के बायोस्कोपे यह अनोखे हैं
अनंत बढ़ती दीवारों को यही तो रोके हैं
अनायास ही मेरे जिग्यासु मन को क्यूँ यह टोके हैं
जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं
इत्र-तड़कों के शीतल झोके हैं
अब बंद दरवाज़ों के पीछे पलते समाज के
प्रतिबिंब के यही तो चन्द मौके हैं
जहाँ देखता हूँ वहाँ झरोखे हैं
कुछ में सच्चाई तो कुछ में धोखे हैं
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