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Saturday, March 24, 2012

रात

रात के बिछौने पे

कलह सिमट के सोई है

सन्नाटे की चादर में

ताज़ा एक पुकार सिसक के खोई है

और हाथ पकड़ कर रात ये

नये शैतानो को खीच बाहर लाई है

की कई बार चाँद को ढककर

इस रात ने राहें छुपाई हैं

ये रात तो है मायावी सी

ये आशिक़ों की भी है, रसीकों की भी

है ये चैन से सोने वालों की

और कुछ मेरे सरीकों की भी

इस रात में सेजें तपती भी हैं

शमशान की राख ठंडाती भी

है सपने बुनती रात यही

मुई सपनो से जगाती भी

और दिन से जुड़ी है दूर बहुत पर

जो सबकी है वो रात नहीं

सफेद जो दिन होता है सबका

काली हमबिस्तर सबके साथ नहीं

पर ये रात जो काली ना होती

तो रात ये साली ना होती

जो हाथ रात का कट जाता

तो दिन की ताली ना होती

तो रात ये फिर घिर आई है

जाने क्या रंग छुपाएगी

इन्सा को फिर झंझोड़ेगी

फिर कुत्तों को सहलाएगी

हूँ दास मैं तेरा हे रात हे रात

चलूँगा जहाँ ले जाएगी

एक अंधेरे पे तेरे ही तो भरोसा है

जिसमें कभी मेरी सोच भी खो जाएगी.

छीटें

एक पुरानी कॉपी हाथ लगी. मानो ख़ज़ाना ही हाथ लग गया हो. कुछ ऐसे पलों का ख़ज़ाना जो मुझे याद नहीं की मैने जिए हैं. तारीखों से मालूम हुआ की उसमें जो कुछ लिखा है वो सब मैने कॉलेज के अंत के कुछ दिनों अथवा उसके बाद के दिनों में लिखा था. पर सच कहूँ तो मुझे उसमें से कुछ भी लिखना याद नहीं. अच्छा लगा एक तीसरे आदमी के दृष्टिकोण से खुद को देखकर. खुद को यूँ समझने का अनुभव भी अद्भुत सा रहा. बस उसी जादूई कॉपी से जो कुछ मेरे हाथ लगा, उस गागर में से चुल्लू भर पानी के छीटें यहाँ मार रहा हूँ, यह स्पष्ट करते हुए की हालाँकि मुझे याद नहीं की मैने जो लिखा था वो क्यों अथवा कब लिखा था पर वह भी मैं था और आज उसे पढ़ अचरज करता यह भी मैं हूँ.


छीटें भाग १-

एक दूसरे का पीछा करते घड़ी के कांटें मुझे बीते कल से दूर ढकेले जा रहे हैं. आने वाले कल से ज़रा झिझकते हुए मुझे अपने जाने-पहचाने, मित्र रूपी भूत को अलविदा कहने का मौका भी नहीं मिल पाता. मैं हाथ बढ़ाया रह जाता हूँ उसकी ओर पर वो जाता ही दिखाई देता है. भविष्य अजनबी, वर्तमान परिचित मात्र और भूत ही मित्र या पहचाना होता है. एक ऐसा मित्र जिससे सीख तो सकते हैं पर उसके साथ समय व्यतीत नही कर सकते. करें भी तो कैसे, वो तो खुद ही बीता समय है.


खैर परिचित से अपरिचित की ओर बढ़ता मैं कल की सोच में इतना मग्न रहता हूँ की आज से बेख़बर हो जाता हूँ. कभी कभी तो लगता है आज कुछ होता ही नहीं. देख जो ना पाया हूँ इतने समय से.


मानव मूल को समझना चाहता हूँ मैं. शायद वहीं से मेरे सभी सवालों के जवाब मुझे मिलें. और दुनिया में कितना कुछ है देखने को. ऐसे ख़याल भी क्यों आते हैं भला मन में मेरे. है देखने को तो क्या? क्या मिलेगा उससे? क्या बदलेगा? क्यों इच्छायें, उत्सुकता, महत्वकाँषायें इत्यादि मन में घर बना लेती हैं? ऐसे में सोचता हूँ मानसिक तौर पे विक्षिप्त इंसान क्या सोचता होगा? क्या भूत भविष्य वो भी खोजता होगा?


एक बात यह भी है की मैने दुनिया को इंसानो की नज़रों से ही देखा है. दुनिया को दुनिया के तौर पे तो शायद देखा ही नहीं. हर एक चीज़ में एक मानवीय कोण आ ही जाता है. शायद यह मानव होने का ही एक हिस्सा है.


सोचता हूँ मैं कहाँ इन सब चीज़ों की फ़िक्र करता रहता हूँ और कहाँ दुनिया में लोगों को पर्यावरण, पैसे, घर, परिवार, बीमारियों इत्यादि की चिंताएं सताए रहती हैं. पर में सोचने के बारे में ज़्यादा सोचता नहीं. ज़िंदगी जैसी आती है वैसी ही जीता हूँ. मन में आया लिखना है तो लिख रहा हूँ, मन हटा तो कलम रख सोने चला जाऊँगा.


वैसे जहाँ तक आज, यानी की २२/०४/०९ की बात है, मैं अनुराग भोमिया, उमर २१ वर्ष २ महीनें, ज़िंदगी को लेकर, मेरे भविष्य को लेकर बिल्कुल अनिश्चित हूँ, दुनिया और इसके लोगों से बहुत चिढ़ा हुआ हूँ, भविष्य में सौफ़ीसदी खून करने वाला हूँ, मन की शांति चाहता हूँ और दुनिया घूमने का मन रखता हूँ, एक ही बार प्यार में पड़ा हूँ, आज भी घर को हर चीज़ से उपर रखता हूँ, माँस-मदिरा का सेवन करता हूँ, दिल से अच्छा हूँ और सबका भला चाहता हूँ और यह अच्छी तरह जानता हूँ की भविष्य में चाहे जैसे भी हो, बहुत बड़ा आदमी बनने वाला हूँ.


सोने का समय हो गया लगता है. कलम छोड़ रहा हूँ अभी के लिए, पर जल्द ही फिर उठाऊँगा.


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भाग १ समाप्त.


मैं आज़ाद हूँ.

ना धर्मों के प्रपंचों में हूँ

ना कट्टर फसल की खाद हूँ

चूहों की दौड़ मे ना-शामिल हूँ

ना पहले हूँ ना बाद हूँ

ना गालियों से कुंठाता हूँ

ना मोहताज-ए-दाद हूँ

ना किसान का ब्याज हूँ

ना ही उपभोक्तावाद हूँ

अपवाद होने की चाह से दूर

खुद एक अपवाद हूँ

जो तुलनात्मक हो वो आज़ादी क्या

ना तुलनाओ में बर्बाद हूँ

मैं, मैं आज़ाद हूँ.


Bachche banein



Kuch der chavi se haath chudaayein,

Kuch der toh bande sachche banein,

Kuch der fikar ko samjhein hi na,

Kuch der akal ke kachche banein,

Chalo kisi ko jeebh chidhaayein,

Kyun sabke saamne achche banein,

Jo bade baney kya bada ukhada,

Kuch der ko phirse bachche banein

अजीब रात



वो रात भी अजीब थी

चंद तारों से ग़रीब थी

वो रूठी थी, मुझे कोसती थी

पर लेती मेरे करीब थी


चेहरों के आकार टुकड़ों में बनते थे

कुछ देर को लहरें थमती थी

कुछ देर दोनो उफनते थे

और काँचों में परछाईयाँ

ही जैसे बनी रक़ीब थी

वो रात भी अजीब थी


ना मिलने की कस्में-बातें उंगलियाँ उलझाए होती रही

वो मुझसे दूर जाती रही और मुझेमें ही खोती रही

और कहती रही की हर बात जो मीठी कहता था,

आज़माई हुई तरकीब थी

वो रात भी अजीब थी


ना प्यार था ना हवस, जो था, था वो बस

नशे के बादलों ने अंदर से कुछ बीना

घुमड़े, गरजे, गये बरस

बाकी की रात की वो बरसात ही जैसे नीव थी

वो रात भी अजीब थी


दुनिया से थोड़े तंग से, ना जानते एक दूसरे को ढंग से

बतियाते भी, कुंठाटे भी, बेपलंग, पर मलॅंग से

और करते भी क्या दोनो फिर, वो रात लिखी नसीब थी

वो रात भी अजीब थी

वो रात बड़ी अजीब थी

तुम आने वाली थी



मैने मन्नतें माँगी थी

मिन्नते की थी

तुमने वादा किया था

तुम आने वाली थी


तुम आने वाली थी तो मैं चुपके से एक बड़ी अलमारी भी पसंद कर आया था

और एक छोटा सा पलंग कि तुम कभी दूर ना रहो

तुम आने वाली थी और हम देसी थर्रा आज़माने का हमारा वादा पूरा करते

पीना छोड़ने पर भी मैं पीता की तुम मुझे बोर ना कहो

तुम आने वाली थी और हम मीडीया के हाथो खिंची 'लिव इन' की लकीरों में रंग भरते

और बस यूँ ही रहते रहते तुम रह ही जाती

तुम आने वाली थी और मैं दरवाज़े पे बैठ तुम्हारी राह देखने का अभ्यास अभी से ही करने लगा था

तुम ऑफीस वाली जो ठहरी, जाने रोज़ कितनी देर लगाती


तुम आने वाली थी पर जनवरी का महीना आ गया

सर्दी आ गयी चली भी गयी

मुझे बुखार भी आया तीन बार

पैसे आए उनका क्या करूँ

पर तुम तुम नही आई


तुम आती तो काटने को दौड़ती दीवारों से शायद फिर याराना हो जाता

तुम आती तो तुम्हारे मंगलवार के बहाने शायद फिर कभी मंदिरों में आना जाना हो जाता

तुम आती तो फिर स्याही पिघल कल्पना के आकार लेती

तुम आती तो फिर दिनचर्या मुझे ज़िंदगी सी दिखाई देती

तुम आती तो फिर बात ही क्या रह जाती

पर तुम तुम नही आई


आया एक फरमान की तुम ना आओगी

तुम्हारा वो एहसान की तुम ना आओगी

साल बाद कहा तो यह कहा

सुन पाए क्यूँ मेरे कान की तुम ना आओगी


तुम ना आई तो मेरे सब बदलाव फिर बदल गये

तुम ना आई तो कुछ साल ज़िंदगी के और फिसल गये

तुम ना आई तो तुम्हारे पापा भी अब ठीक लगते हैं

तुम ना आई तो मन के वेहम अब सटीक लगते हैं


तुम ना आई हो ना आओगी

कब तक मेरी ज़िंदगी से दौड़ लगाओगि

खैर मैं तो भावुक हूँ

मेरी बात दिल पे ना लेना

पर जीना इस बात के साथ

कभी भुला भी ना देना

की तुम आने वाली थी