वो रात भी अजीब थी
चंद तारों से ग़रीब थी
वो रूठी थी, मुझे कोसती थी
पर लेती मेरे करीब थी
चेहरों के आकार टुकड़ों में बनते थे
कुछ देर को लहरें थमती थी
कुछ देर दोनो उफनते थे
और काँचों में परछाईयाँ
ही जैसे बनी रक़ीब थी
वो रात भी अजीब थी
ना मिलने की कस्में-बातें उंगलियाँ उलझाए होती रही
वो मुझसे दूर जाती रही और मुझेमें ही खोती रही
और कहती रही की हर बात जो मीठी कहता था,
आज़माई हुई तरकीब थी
वो रात भी अजीब थी
ना प्यार था ना हवस, जो था, था वो बस
नशे के बादलों ने अंदर से कुछ बीना
घुमड़े, गरजे, गये बरस
बाकी की रात की वो बरसात ही जैसे नीव थी
वो रात भी अजीब थी
दुनिया से थोड़े तंग से, ना जानते एक दूसरे को ढंग से
बतियाते भी, कुंठाटे भी, बेपलंग, पर मलॅंग से
और करते भी क्या दोनो फिर, वो रात लिखी नसीब थी
वो रात भी अजीब थी
वो रात बड़ी अजीब थी
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