एक पुरानी कॉपी हाथ लगी. मानो ख़ज़ाना ही हाथ लग गया हो. कुछ ऐसे पलों का ख़ज़ाना जो मुझे याद नहीं की मैने जिए हैं. तारीखों से मालूम हुआ की उसमें जो कुछ लिखा है वो सब मैने कॉलेज के अंत के कुछ दिनों अथवा उसके बाद के दिनों में लिखा था. पर सच कहूँ तो मुझे उसमें से कुछ भी लिखना याद नहीं. अच्छा लगा एक तीसरे आदमी के दृष्टिकोण से खुद को देखकर. खुद को यूँ समझने का अनुभव भी अद्भुत सा रहा. बस उसी जादूई कॉपी से जो कुछ मेरे हाथ लगा, उस गागर में से चुल्लू भर पानी के छीटें यहाँ मार रहा हूँ, यह स्पष्ट करते हुए की हालाँकि मुझे याद नहीं की मैने जो लिखा था वो क्यों अथवा कब लिखा था पर वह भी मैं था और आज उसे पढ़ अचरज करता यह भी मैं हूँ.
छीटें भाग १-
एक दूसरे का पीछा करते घड़ी के कांटें मुझे बीते कल से दूर ढकेले जा रहे हैं. आने वाले कल से ज़रा झिझकते हुए मुझे अपने जाने-पहचाने, मित्र रूपी भूत को अलविदा कहने का मौका भी नहीं मिल पाता. मैं हाथ बढ़ाया रह जाता हूँ उसकी ओर पर वो जाता ही दिखाई देता है. भविष्य अजनबी, वर्तमान परिचित मात्र और भूत ही मित्र या पहचाना होता है. एक ऐसा मित्र जिससे सीख तो सकते हैं पर उसके साथ समय व्यतीत नही कर सकते. करें भी तो कैसे, वो तो खुद ही बीता समय है.
खैर परिचित से अपरिचित की ओर बढ़ता मैं कल की सोच में इतना मग्न रहता हूँ की आज से बेख़बर हो जाता हूँ. कभी कभी तो लगता है आज कुछ होता ही नहीं. देख जो ना पाया हूँ इतने समय से.
मानव मूल को समझना चाहता हूँ मैं. शायद वहीं से मेरे सभी सवालों के जवाब मुझे मिलें. और दुनिया में कितना कुछ है देखने को. ऐसे ख़याल भी क्यों आते हैं भला मन में मेरे. है देखने को तो क्या? क्या मिलेगा उससे? क्या बदलेगा? क्यों इच्छायें, उत्सुकता, महत्वकाँषायें इत्यादि मन में घर बना लेती हैं? ऐसे में सोचता हूँ मानसिक तौर पे विक्षिप्त इंसान क्या सोचता होगा? क्या भूत भविष्य वो भी खोजता होगा?
एक बात यह भी है की मैने दुनिया को इंसानो की नज़रों से ही देखा है. दुनिया को दुनिया के तौर पे तो शायद देखा ही नहीं. हर एक चीज़ में एक मानवीय कोण आ ही जाता है. शायद यह मानव होने का ही एक हिस्सा है.
सोचता हूँ मैं कहाँ इन सब चीज़ों की फ़िक्र करता रहता हूँ और कहाँ दुनिया में लोगों को पर्यावरण, पैसे, घर, परिवार, बीमारियों इत्यादि की चिंताएं सताए रहती हैं. पर में सोचने के बारे में ज़्यादा सोचता नहीं. ज़िंदगी जैसी आती है वैसी ही जीता हूँ. मन में आया लिखना है तो लिख रहा हूँ, मन हटा तो कलम रख सोने चला जाऊँगा.
वैसे जहाँ तक आज, यानी की २२/०४/०९ की बात है, मैं अनुराग भोमिया, उमर २१ वर्ष २ महीनें, ज़िंदगी को लेकर, मेरे भविष्य को लेकर बिल्कुल अनिश्चित हूँ, दुनिया और इसके लोगों से बहुत चिढ़ा हुआ हूँ, भविष्य में सौफ़ीसदी खून करने वाला हूँ, मन की शांति चाहता हूँ और दुनिया घूमने का मन रखता हूँ, एक ही बार प्यार में पड़ा हूँ, आज भी घर को हर चीज़ से उपर रखता हूँ, माँस-मदिरा का सेवन करता हूँ, दिल से अच्छा हूँ और सबका भला चाहता हूँ और यह अच्छी तरह जानता हूँ की भविष्य में चाहे जैसे भी हो, बहुत बड़ा आदमी बनने वाला हूँ.
सोने का समय हो गया लगता है. कलम छोड़ रहा हूँ अभी के लिए, पर जल्द ही फिर उठाऊँगा.
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भाग १ समाप्त.
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