बूंदों की पकड़ से बच अभी अन्दर कदम ही रखा था. श्वाननुमा झटकने ने हमें तो चोंटी भर भी न सुखाया पर पूरी जगह को भिगो दिया. बाहर बारिश की खाई तोह अन्दर एयर कंडीशनर का कुआँ. सरपट काउंटर की ओर दौड़े और बजते हुए दांतों से एक गरम कॉफ़ी का आर्डर दे डाला. जब जान बचने के आसार दिखे तो याद आया की जिन महानुभाव से मिलने हम इस उपभोक्तावाद की लंका में फूटपाथ की लक्ष्मण रेखा पार कर दौड़े चले आये थे उनसे तो मुखातिब होना अभी रह ही गया था. तभी पीछे से आवाज़ आई, “अनुराग! हाय! धीरज.” एक बार को तो हमने सोचा कहीं हमारी हडबडाहट देख धीरज रखने को तो नहीं कह रहे धीरज जी कहीं. हमने एक मंद मुस्कान जुटाने के लिए होठ जोड़े पर कुछ ख़ास निकला नहीं. मन में आया की जल्दी मुस्कान न जुटी तो यह काम भी मुंबई की बारिश में रुके पानी से तेज़ बह जाएगा. और तभी मुस्कराहट ने हमें ढूंढ लिया.
धीरज जी की ओर दो कदम और स्लो मोशन में पीछे की टेबल पे वो प्रकट हुई. बेफिक्र हंसी, बेतरतीब बाल, बेहिसाब सपनो वाली आँखें, बेकरार पलकें और बेशरम हम. “अनुराग! अनुराग!” क्या धीरज साहब, ज़िन्दगी की इतनी ठोकरों में एक ठोकर तो अच्छी लगी थी और आप आ गए उठाने. मीटिंग पे ध्यान देने के मन से हमने धीरज जी के सामने की कुर्सी हथिया तो ली पर सत्ता हम हार चुके थे. कसम ऊपर वाले की किसी मीटिंग में हमने इतनी हाँ कभी न बोली होगी. ज़िन्दगी ऐसे रुकी जैसे चैन के खींचने पे ट्रेन.
तभी पीछे के कांच में बसे खुदपे ध्यान गया. पूछा, ‘क्यूँ लेखक साहब व्यंग, कटाक्ष, दोषदर्शिता छोड़ कहाँ डी.डी.एल.जे लिखने निकल पड़े. थोड़ी तो गैरत ओढ़ लो.’ हमने भी पलट जवाब दे डाला. ‘हाँ हाँ प्यार व्यार थोड़े ही है. दिल फेंकी ही तो है. दिमाग के आड़े कुछ न आने देंगे. तुम चिंता न करो.’ बात बन गयी.
बस फिर क्या था. उन्होंने वहां कप लबों को लगाया यहाँ हमने एक चम्मच शक्कर कम कर दी. वहां धीरज जी हमारी मीटिंग के प्रति उदासीनता भांप रहे थे यहाँ हम प्यार की भांप में सर्दी भगा रहे थे. वहां धीरज जी मोल तोल कर पैसे घटा रहे थे यहाँ हम हाँ हाँ बोल अपनी ही बारात में पैसे उड़ा रहे थे. वहां वो अपने अपनी काले बाल झटकती यहाँ हम बुढापे में एक दूसरे को खिजाब लगाने की कल्पना जोड़ लेते. एक ज़िन्दगी तो हम वहीँ जी गए पूरी. बस यह तय नहीं पाए की देहांत की स्तिथि में क्या किया जाए. वो कुछ जम न पा रहा था. हम पहले जाना नहीं चाहते थे और इतने सालों के बाद उनके बाद कैसे रह पाते. तो हमने साथ साथ दुनिया छोड़ने वाले फिल्मी क्लाइमेक्स पे मोहर लगा दी.
“डन डन” बोल धीरज जी ने कब हमसे हाथ मिलाया कब रुखसत हुए पता न चला. हम अगली टेबल पे जाने का मन बना ही रहे थे की बैरा हमसे पहले मन बना हमारी टेबल पे आ गया. डरे डरे जब उसने हमें कन्धों से झंझोड़ा तो नज़रें मिसेस से हटानी पड़ी. धीरज जी मौके का फायदा उठा बिल हमारे चौड़े होते माथे मढ़ गए थे. चारों जेबें टटोलनी पड़ी. शरीर से जब अस्सी रुपये वज़न कम कर हमने नज़रें दोबारा उठायीं तो वो जा चुकी थी. कहाँ कैसे हमें नहीं पता. हमने आगे पीछे देखा जैसे हम किसी पिद्दी सी कॉफ़ी शॉप में नहीं बल्कि किसी मेले में हों. जो होती तो दिखती. बाहर बारिश के परदे के पीछे चली गयी थी शायद. अब पीछा कर मारे मारे भी क्या फिरना. एक पूरी ज़िन्दगी तो हम जी ही चुके थे. फिर मोहब्बतें अभी और भी बाकी थीं. हमने धीरज जी को कॉल लगाया.
0 comments:
Post a Comment